Friday, May 8, 2020

भारतीय मनीषियों ने बार-बार कहा है कि

एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति

---ऋग्वेद-1/164/46

एक ही ईश्वर को विद्वान लोग उसके गुण के अनुसार अनेक नामों से पुकारते हैं। 


ऋग्वेद के अगर इस श्लोक से उपजे मंत्र को यदि विश्व अपना ले, तो विश्व शांति एक कल्पनातीत विषय नहीं है।
वेद तो - सर्वे भवन्तु सुखिनः और वसुधैव कुटुंबकम् को स्वीकारता है। सभी धर्मों को सच्चा धर्म मानता है, लेकिन क्या बाकी के धर्म भी दूसरों को उनका स्थान और सम्मान देने को तैयार हैं ?
सनातन परंपरा में जब शिष्य अपने गुरु से पूछता है "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा "अर्थात गुरुवर मुझे ब्रह्म को जानने के बारे मे जिज्ञासा है तो गुरु उसको विद्या अध्ययन तप शील ज्ञान गुण और धर्म की शिक्षा देने के बाद कहते हैं - "तद् त्वं असि" जिसकी खोज मे तुम जिज्ञासु और आतुर हो वो तुम्हारे भीतर ही है, और फिर उसको ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताते है।

लेकिन अन्य मजहबों में ऐसी बात नहीं।
उसमे अल्लाह या God के द्वारा चुने हुये व्यक्ति पैगंबर के माध्यम से ही वो सब को एक आसमानी किताब देता है। जिसके हर एक शब्द को मानना अनिवार्य होता है। अल्लाह के साथ साथ उस पैगम्बर पर भी ईमान लाना उसकी श्रेष्ठ होने का प्रमाण है। ईमान न लाने वाला काफ़िर है, वाजिबुल कत्ल है।

जब कि वास्तव में सनातन दृष्टिकोण से देखा जाय तो मानव निरंतर चलता रहे गतिशील रहे बेहतर के लिए प्रयत्न करता रहेगा यही उसके श्रेष्ठ होने का प्रमाण है।
मानव में निहित शक्तियों के रूप में कृष्ण बोलते हैं कि जब जब धर्म की हानि होती है तब तब मेरे जैसे लोग अवतरित होते हैं।
अवतार मनुष्य की निरंतर जीने की इच्छा ही है जो हर हार के बाद फिर से उठ खड़ी होती है। और यह निरंतर जीने की कामना कभी महावीर, कभी बुद्ध, कभी जीजस, कभी मोहम्मद,कभी कबीर, कभी नानक, तो कभी गांधी के रूप में प्रकट होती है। जो समस्त सृष्टि में छुपी एकात्मकता से परिचित कराती है। किंतु कुछ काल में मनुष्य की स्वार्थी प्रवृत्ति चतुराई के साथ ऐसा अंधेरा बुनती है कि यह सारा तत्वज्ञान ओझल होने लगता है। उनके अनुयाई अपने स्वार्थ में तत्वज्ञान के नाम पर एक नया रास्ता ही निकाल देते हैं। इसी तरह ज्ञान के मुख्य पथ से खुद को भगवान घोषित करती हुई ना जाने कितने मजहब मत पंथ एवं संप्रदाय निकल आये। और सत्य मार्ग आंखों से ओझल हो गया।
धर्म और प्रभु तत्व के लालच में संगठित ऐसे धार्मिक लुटेरों ने अपने कृत्यों से धर्म को और बदनाम किया है।
इसी स्वार्थी सोच के तहत मनुष्य अपने इलाके की बोली भाषा और धर्म के तहत एक दूसरे को जानता,पहचानता है और विश्वास करता है। इसी का लाभ मनुष्य को बांटते वाली ताकतें उठाती है और अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करती है।
भारत में भले ही अधिकतर मुस्लिम की आस्था का केंद्र अरब देश हो, उनके धर्म के मुख्य केंद्र मक्का मदीना हों। लेकिन उन सभी के पूर्वज यहीं के हैं। उनका डीएनए उनको यही का सिद्ध करता है। उन्हें बाहर का कोई भी इस्लामी देश स्वीकार नहीं करता और ना ही वह वहां पर जाकर खुश ही होंगे। लेकिन आज उन्हीं के द्वारा गंगा जमुनी तहजीब पर शंका उठाने की प्रवृत्ति सक्रिय नजर आने लगी है। जबकि समाजवादी विचारधारा के बावजूद चीन में मुसलमानों से उसके नमाज करने की चटाईयां एवं कुरान की प्रतियां जप्त की जा रही है। अमेरिका में सरदारों को महज दाढ़ी होने के कारण मुसलमान समझ कर पीटा जा रहा है, हमले किए जा रहे हैं। विभिन्न इस्लामी देशों में उसी धर्म के मानने वाले अनुयायियों के द्वारा कत्लेआम एवं नृशंश गोलाबारी किस मानवतावादी धर्म का संकेत है?
विज्ञान की शिक्षा समस्त विश्व में एक ही है और जब भी कोई संशोधन होता है तो यह समस्त विश्व में एक समान लागू होता है जबकि धार्मिक शिक्षा के साथ ऐसी बात नहीं है। समस्त तथाकथित धार्मिक शिक्षायें आज अलगाववाद का सृजन ही करती नजर आती हैं।
 सरकारों द्वारा धार्मिक शिक्षाओं के नाम पर समाज में फूट डालने वाली शिक्षाओं को कोई छूट देने की अनुमति नहीं होनी चाहिए।
सभी स्कूलों का पाठ्यक्रम एक सा होना चाहिए। क्योंकि बिना ऐसी शिक्षा के दुनिया में घृणा और कुटिलता का अंधेरा आस्था और धर्म का रूप धर कर बार बार आता ही रहेगा।

--मदन शर्मा / आर्य समाज चौक प्रयाग

जब तक वाद न छूटेगा तब तक आनंद नहीं



जब तक वाद न छूटेगा तब तक आनंद नहीं

यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेद मत से भिन्न दूसरा कोई भी मत नहीं था, क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने के कारण महाभारत युद्ध हुआ। इनकी अप्रवृत्ति से अविद्या अंधकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिसके मन में जैसा आया, वैसा मत चलाया। मेरा तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं, किंतु सत्यासत्य का निर्णय करने-कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्याय दृष्टि से बरतना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्यासत्य का निर्णय करने- कराने के लिए है, न कि वाद-विवाद करने- कराने के लिए। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मत-मतांतर का विरुद्ध वाद न छूटेगा, तब तक अन्यो अन्य को आनंद न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वत जन ईर्ष्या- द्वेष छोड़ सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना- कराना चाहें, तो हमारे लिए यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सबको विरोध-जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें, तो अभी एकमत हो जाएं। सर्वशक्तिमान परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों की आत्माओं में प्रकाशित करे। यह आर्यावर्त देश ऐसा देश है, जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिए इस देश का नाम सुवर्णभूमि है, क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है। इसीलिए सृष्टि की आदि में आर्य लोग इसी देश में आकर बसे। इसीलिए हम सृष्टि विषय में कह आए हैं कि आर्य नाम उत्तम पुरुषों का है और आर्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु है। जितने भूगोल में देश हैं, वे सब इसी देश की प्रशंसा करते हैं।सृष्टि से लेकर पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यंत आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में मांडलिक अर्थात छोटे-छोटे राजा रहते थे। जो संस्कृत विद्या को नहीं पढ़े, वे भ्रम में पड़कर कुछ का कुछ लिखते और कुछ का कुछ बकते हैं। उसका बुद्धिमान लोग प्रमाण नहीं कर सकते। और जितनी विद्या भूगोल में फैली है, वह सब आर्यावर्त देश से मिश्र वालों, उनसे यूनानी, उनसे रोम और उनसे यूरोप, उनसे अमेरिका आदि में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या का आर्यावर्त में है, उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि जर्मनी देश में संस्कृत का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मैक्समूलर साहब पढ़े हैं, उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहने मात्र को है। जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता, वहां एरंड को ही बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप में संस्कृत का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मैक्समूलर साहब ने थोड़ा-सा पढ़ा, वही उस देश के लिए अधिक है। परंतु आर्यावर्त देश की ओर देखें, तो उनकी बहुत न्यून गणना है। यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्यावर्त देश से ही प्रचारित हुए हैं। एक गोल्डस्टकर साहब पेरिस अर्थात फ्रांस देश निवासी अपनी बाइबिल इन इंडिया में लिखते हैं कि सब विद्या और भलाइयों का देश आर्यावर्त है और परमात्मा की प्रार्थना करते हैं कि हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्यावर्त देश की पूर्वकाल में थी, वैसी ही हमारी देश की कीजिए।
--महर्षि दयानन्द सरस्वती

Sunday, September 1, 2019


प्रश्न-पांच तत्व में पृथ्वी,जल,वायू और अग्नि ये चारो तत्व तो हम रखते हैं मगर आकाश तत्व हमारे शरीर में कहां है?

उत्तर-हमारा शरीर भी पञ्च तत्वो से ही बना हैं। आकाश तत्व पहला तत्व है तथा सर्वत्र व्याप्त हैं। इस तत्व के अणुओं की सूक्ष्मता इतनी ज्यादा हैं, कि इसकी उपस्थिति का हमें कोई भान नहीं हो पाता हैं। शब्द इस तत्व का एकमात्र गुण है। इसके अलावा इसमें अन्य कोई भी गुण जैसे कि स्पर्श, रूप, रस, व गन्ध नहीं होता हैं।
हमारे शरीर में शब्द की उत्त्पति इस आकाश तत्व के कारण से ही होती हैं। हम जो भी बोलते हैं, वो शब्द, वाणी या ध्वनि इस तत्व की ही देन हैं। 
जब यह आकाश तत्व अन्य तत्वो में मिलता हैं, तो उससे अन्य कई नए गुण हमारे इस शरीर में बनने लगते हैं। आकाश व वायु तत्व के मिश्रण से ‘काम’ उत्पन्न होता हैं। आकाश व तेज तत्व के मिश्रण से ‘क्रोध’, आकाश व जल तत्व से ‘मोह’ व आकाश व पृथ्वी तत्व से ‘भय’ के गुण हमारे अंदर बनते हैं।

Saturday, August 31, 2019



आर्यसमाज के विषय में आज लोगों में भिन्न-भिन्न प्रकार की भ्रान्तिया है। कुछ लोगों का मानना है की आर्यसमाज नास्तिक संगठन है जो ईश्वर को नहीं मानते। मूर्ति-पूजा के विरुद्ध है। आर्य समाज के नियम बहुत कठिन है। आर्य समाज एकमात्र ऐसा संगठन है जो लोगों को बरगलाने का कार्य करता है और भी बहुत सारी बाते है जो विभिन्न मत-सम्प्रदाय के द्वारा कही जाती है।
आर्य समाज कोई मत, पन्थ या सम्प्रदाय नहीं है क्योंकि यह ईश्वरिय ज्ञान वेद पर आधारित है। जिसका मुख्य उद्देश्य वेद प्रचार द्वारा जनता को सच्चे वैदिक धर्म की शिक्षा देना है। जैसे ईश्वर नित्य है, वेद ज्ञान नित्य है।
आर्य समाज वेदज्ञान के आधार पर आपकी आँखों से झूठ का पर्दा हटाकर आपको सत्य-सत्य जानकारी से अवगत कराने का प्रयास करता है।
वेद कहता है कि जो वस्तु जैसा है उसे वैसा ही मानना सत्य है। जब कि वो कहते हैं कि मानो तो देव ना मानो तो पत्थर! अर्थात आप पत्थर को देवता मानते हो तो वह देवता है। नहीं मानते हो तो वह पत्थर है।यदि कोई आपसे पूछता है कि आपसे किसने बोल दिया कि वह देवता है? तो आप कहेंगे की यह बात तो परंपरा से चली आ रही है। तो परंपरा भी तो गलत हो सकती है। झूठी हो सकती है। तो आप कहेंगे कि आप तो हमारे भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं। जबकि धर्म के साथ भावना का कोई भी संबंध नहीं है। आप उस भावना से झूठ को कभी भी सत्य नहीं सिद्ध कर सकते। एक आदमी कहता है की जमीन पर खड़े खड़े ही उसने चांद के दो टुकड़े कर दिए। तो दूसरा आदमी कहता है की हनुमान जी ने तो सूर्य को ही खा लिया। फिर आप अपनी बात को जस्टिफाई करने के लिए कहते हैं की यह तो मेरी आस्था है। 
आप गलत आस्था से किसी झूठ को सत्य में कैसे परिवर्तित कर सकते हैं? यदि फिर भी आप कहते हैं मानो तो देव ना मानो तो पत्थर यह सत्य है।  तो आपको मुट्ठी में रेत लेकर यह भी मानना पड़ेगा कि मानो तो चीनी ना मानो तो रेत। क्या यह मानकर रेत को चीनी में परिवर्तित करना आपके लिए सम्भव हो सकता है? 
यहां आपकी आस्था कहां चली जाती है?  
नहीं कभी भी सम्भव नहीं। क्योंकि भावना के द्वारा आप कभी भी झूठ को सत्य में नहीं बदल सकते। जबकि वेद भी इस तरह की बातों से साफ मना करता है।
वेद कहता है कि जो वस्तु जैसा है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य है।

Tuesday, August 13, 2019




अल्लाह को कहा जाता है यालेमुल गैब 
यह मात्र कहने की बात है, की अल्लाह अदृश्य या छुपी हुई बातों को जानता है। जबकि यह सत्य नहीं है। क्योकि यदि अल्लाह अदृश्य को जानता तो अपने पैगम्बर और खलीलुल्लाह पैगम्बर(अल्लाह का दोस्त) जिन्हें लोग इबराहीम के नाम से जानते हैं। उसका इम्तिहान न लेता। बताया जाता है की अल्लाह ने अपने दोस्त से इम्तिहान लेना चाहा था।

किस चीज की इम्तेहान ली, अपने सबसे प्यारी चीज की क़ुरबानी देने की। जिसे अल्लाह ने अपने दोस्त इबराहीम को ख्वाब में दिखाया था। 
तो लगातार तीन दिन तक पशु काटते रहे अल्लाह के दोस्त इब्राहीम! किन्तु अल्लाह को यह स्वीकार नहीं हुआ।  अल्लाह का इम्तेहान तो अभी बाकि रह गया था।

इब्राहिम ने फिर ख्वाब देखा की अल्लाह इब्राहीम से कह रहे हैं जो सबसे प्यारी चीज  है तुम्हारी, उसे मेरे रास्ते में कुर्बान करो। 
 इब्राहीम ने अपनी दासी से जो संतान पैदा किया था उसका नाम इस्माईल था। उस समय तक इब्राहीम अपनी पत्नी सारा बीवी से संतान नहीं पैदा कर पाए थे। इस इस्माईल को जविह उल्लाह कहा।

 इब्राहीम ने अपनी पत्नी सारा के कहने पर इसी दासी को जिनका नाम बीवी हाजरा था, घर से बाहर निकाल दिया था -और बियावान जंगल में या फिर निर्जन मरूभूमी(रेगिस्तान) में छोड़ आये थे। जहाँ पानी तक का ठिकाना नहीं! 
माँ हाजरा और बेटा इस्माईल प्यास के मारे उस निर्जन रेगिस्तान में इधर उधर भटक रहे थे। रेतीले पहाड़ पर मृग मरीचिका को पानी समझ कर सफा और मरवा नामक दो पहाड़ों के बीच में पानी के लिए वह भागती रही।

किन्तु वहां पानी तक नहीं मिला। सात बार पानी की खोज में बिवी हाजरा दौड़ती रही जिसकी चर्चा कुरान में भी की गई हैं जैसा =  إِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِن شَعَائِرِ اللَّهِ ۖ فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ أَوِ اعْتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَا ۚ وَمَن تَطَوَّعَ خَيْرًا فَإِنَّ اللَّهَ شَاكِرٌ عَلِيمٌ [٢:١٥٨] 
बेशक (कोहे) सफ़ा और (कोह) मरवा ख़ुदा की निशानियों में से हैं पस जो शख्स ख़ानए काबा का हज या उमरा करे उस पर उन दोनो के (दरमियान) तवाफ़ (आमद ओ रफ्त) करने में कुछ गुनाह नहीं (बल्कि सवाब है) और जो शख्स खुश खुश नेक काम करे तो फिर ख़ुदा भी क़दरदाँ (और) वाक़िफ़कार है।

आज तक इसे हज यात्रीयों को भी करना ही पड़ता है जो बीवी हांजरा ने की थे। उसी की याद करने का आदेश मुसलमानों को दिया है अल्लाह ने।
सवाल यह पैदा होता है की अल्लाह ने अपने दोस्त का इम्तेहाँन लिया = की वह अपने बेटे को क़ुरबानी दे सकते हैं या नहीं ? 

किन्तु इस्लाम वाले यह नहीं  जानते की इम्तेहान लेने वाला अल्पज्ञ होगा सर्वज्ञ नहीं हो सकता। क्योंकि इम्तेहान या परीक्षा वही लेता है जो नहीं जानता है की यह क्या करता है? अर्थात परिणाम जिसे ज्ञात नहीं है उसे जानने के लिए इम्तेहान ली जाती है। और यही बात अल्लाह के लिए है।  फिर अल्लाह अदृश्य के बातों का जानने वाला कैसे हो गया? 

दूसरी बात है की अल्लाह ने इब्राहीम को ख्वाब दिखाया की अपनी सबसे प्यारी चीज को मेरे रास्ते में क़ुरबान करो। तो इब्राहीम को अपना बेटा सबसे प्यारा कहाँ था? अगर बेटा इतना ही सबसे प्यारा  होता तो उसे माँ के साथ घर से क्यों निकाल बाहर करता?   जिसे घर से बाहर पीने के लिए पानी तक नहीं दिया वह सबसे प्यारा कैसे?  जिसे वह पानी तक मुहैया नहीं करा सके वह प्यारा क्यों और कैसे? 
क्या यही पैगम्बर हैं, और अल्लाह के दोस्त भी, यही निष्ठुरता को जिसने पशुओं को काट कर दिखाया। 

यह बिलकुल झूठी बातें है कपोल कल्पित बातें है। यह अंध विश्वासका पराकाष्ठा है। उसी अंध विश्वास में आज समस्त धरती को सिर्फ धर्म के नाम पर पशुओं के खून से रंगा जा रहा है।
चूंकि यह पूरी घटना अल्लाह,कुरान और इस्लाम से जुडी है और इसे धर्म कहकर धर्म को भी दूषित किया गया है। लेकिन इस तरह के कारनामों के आधार पर यह धर्म का होना कभी भी संभव ही नहीं है। कुरान में अनेक बार इस किस्से को बताया गया है। समय समय पर आगे भी लिखता रहूँगा।
घन्यवाद के साथ 
-महेन्द्रपाल आर्य 
12 /8 /19 



Wednesday, November 14, 2018

जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं और उनकी योग्यता के अनुसार ही हर युग मे कार्य होता है। यह विशेष ध्यान रखें कि मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य कहा जाता है। सृष्टि के सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही है जिसे विचारशक्ति प्राप्त है।
मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में बांटा गया है। इस लिए हर युग मे चारों का ही पूर्ण महत्व है।

Saturday, September 28, 2013

शहीद भगत सिंह क्यों आदर्श है?

'मैं नास्तिक क्यों हूँ? शहीद भगतसिंह की यह छोटी सी पुस्तक वामपंथी, साम्यवादी लाबी द्वारा आजकल नौजवानों में खासी प्रचारित की जा रही है, जिसका उद्देश्य उन्हें भगत सिंह के जैसा महान बनाना नहीं अपितु उनमें नास्तिकता को बढ़ावा देना है। कुछ लोग इसे कन्धा भगत सिंह का और निशाना कोई और भी कह सकते हैं। मेरा एक प्रश्न उनसे यह है की क्या भगत सिंह इसलिए हमारे आदर्श होने चाहिएँ कि वे नास्तिक थे, अथवा इसलिए कि वे एक प्रखर देशभक्त और अपने सिद्धान्तों से किसी भी कीमत पर समझौता न करने वाले बलिदानी थे? सभी कहेंगे कि इसलिए कि वे देशभक्त थे। भगतसिंह के जो प्रत्यक्ष योगदान है उसके कारण भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में उनका कद इतना उच्च है कि उन पर अन्य कोई संदिग्ध विचार धारा थोंपना कतई आवश्यक नहीं है। इस प्रकार के छद्म प्रोपगंडा से भावुक एवं अपरिपक्व नौजवानों को भगतसिंह के समग्र व्यक्तित्व से अनभिज्ञ रखकर अपने राजनैतिक उद्देश्य तो पूरे किये जा सकते हैं, भगतसिंह के आदर्शों का समाज नहीं बनाया जा सकता। किसी भी क्रांतिकारी की देशभक्ति के अलावा उनकी अध्यात्मिक विचारधारा अगर हमारे लिए आदर्श है तब तो भगत सिंह के अग्रज महान् कवि एवं लेखक, भगत सिंह जैसे अनेक युवाओं के मार्ग द्रष्टा, जिनके जीवन में क्रांति का सूत्रपात स्वामी दयानंद द्वारा रचित अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढऩे से हुआ था, कट्टर आर्यसमाजी, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल जी जिनका सम्पूर्ण जीवन ब्रह्मचर्य पालन से होने वाले लाभ का साक्षात् प्रमाण था, क्यों हमारे लिए आदर्श और वरण करने योग्य नहीं हो सकते?
    क्रान्तिकारी सुखदेव थापर वेदों से अत्यंत प्रभावित एवं आस्तिक थे एवं संयम विज्ञान में उनकी आस्था थी। स्वयं भगत सिंह ने अपने पत्रों में उनकी इस भावना का वर्णन किया है। हमारे लिए आदर्श क्यों नहीं हो सकते?
'आर्यसमाज मेरी माता के समान है और वैदिक धर्म मेरे लिए पिता तुल्य है। ऐसा उदघोष करने वाले लाला लाजपतराय जिन्होंने जमीनी स्तर पर किसान आन्दोलन का नेतृत्व करने से लेकर उच्च बौद्धिक वर्ग तक में प्रखरता के साथ देशभक्ति की अलख जगाई और साइमन कमीशन का विरोध करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। वे क्यों हमारे लिए वरणीय नहीं हो सकते? क्या इसलिए कि वे आस्तिक थे? वस्तुत: देशभक्त लोगों के प्रति श्रद्धा और सम्मान रखने के लिए यह एक पर्याप्त आधार है कि वे सच्चे देशभक्त थे और उन्होंने देश की भलाई के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और सपनों सहित अपने जीवन का बलिदान कर दिया, इससे उनके सम्मान में कोई कमी या व्द्धि नहीं होती कि उनकी आध्यात्मिक विचारधारा क्या थी। रामप्रसाद के बलिदान का सम्मान करने के साथ अशफाक के बलिदान का केवल इस आधार पर अवमूल्यन करना कि वे इस्लाम से सम्बंधित थे, केवल मूर्खता ही कही जाएगी।  
    ऐसे हजारों क्रांतिकारियों का विवरण दिया जा सकता है जिन्होंने न केवल मातृभूमि की सेवा में अपने प्राण न्योछावर किये थे अपितु मान्यता से वे सब दृढ़ रूप से आस्तिक भी थे। क्या उनकी शहादत और भगत सिंह की शहादत में कुछ अंतर हैं? नहीं। फि र यह अन्याय नहीं तो और क्या है?
    अब यह भी विचार कर लेना चाहिए कि भगत सिंह की नास्तिकता क्या वाकई में नास्तिकता है? भगत सिंह शहादत के समय एक 23 वर्ष के युवक ही थे। उस काल में 1920 के दशक में भारत के ऊपर दो प्रकार की विपत्तियाँ थीं। 1921 में परवान चढ़े खिलाफत के मुद्दे को कमाल पाशा द्वारा समाप्त किये जाने पर कांग्रेस एवं मुस्लिम संगठनों की हिन्दू-मुस्लिम एकता ताश के पत्तों के समान उड़ गई और सम्पूर्ण भारत में दंगों का जोर आरंभ हो गया। हिन्दू मुस्लिम के इस संघर्ष को भगत सिंह द्वारा आज़ादी की लड़ाई में सबसे बड़ी अड़चन के रूप में महसूस किया गया, जबकि इन दंगों के पीछे अंगे्रजों की फूट डालो और राज करो की नीति थी। इस विचार मंथन का परिणाम यह निकला कि भगत सिंह को धर्म नामक शब्द से घृणा हो गई। उन्होंने सोचा कि दंगों का मुख्य कारण धर्म है। उनकी इस मान्यता को दिशा देने में माक्र्सवादी साहित्य का भी योगदान था, जिसका उस काल में वे अध्ययन कर रहे थे। दरअसल धर्म दंगों का कारण ही नहीं था, दंगों का कारण मत-मतान्तर की संकीर्ण सोच थी। धर्म पुरुषार्थ रुपी श्रेष्ठ कार्य करने का नाम है, जो सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक है। जबकि मत या मज़हब एक सीमित विचारधारा को मानने के समान हैं, जो न केवल अल्पकालिक हैं अपितु पूर्वाग्रह से युक्त भी हैं। उसमें उसके प्रवर्तक का सन्देश अंतिम सत्य होता है। माक्र्सवादी साहित्य की सबसे बड़ी कमजोरी उसका धर्म और मज़हब शब्द में अंतर न कर पाना है।
    उस काल में अंग्रेजों की विनाशकारी नीतियों के कारण भारत देश में गरीबी अपनी चरम सीमा पर थी और अकाल, बाढ़, भूकंप, प्लेग आदि के प्रकोप के समय उचित व्यवस्था न कर पाने के कारण थोड़ी सी समस्या भी विकराल रूप धारण कर लेती थी। ऐसे में चारों ओर गरीबी, भूखमरी, बीमारियाँ आदि देखकर एक देशभक्त युवा का निर्मल चित व्यथित हो जाना स्वाभाविक है। परन्तु इस प्रकोप का श्रेय अंग्रेजी राज्य, आपसी फूट, शिक्षा एवं रोजगार का अभाव, अन्धविश्वास आदि को न देकर ईश्वर को देना कठिन विषय में अंतिम परिणाम तक पहुँचने से पहले की शीघ्रता के समान है। दुर्भाग्य से भगत सिंह जी को केवल 23 वर्ष की आयु में देश पर अपने प्राण न्योछावर करने पड़े, वर्ना कुछ और काल में विचारों में प्रगति होने पर उनका ऐसा मानना कि संसार में दुखों का होना इस बात को सिद्ध करता है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं हैं, वे स्वयं ही अस्वीकृत कर देते।
    संसार में दु:ख का कारण ईश्वर नहीं अपितु मनुष्य स्वयं हैं। ईश्वर ने तो मनुष्य के निर्माण के साथ ही उसे वेद रूपी उपदेश में यह बता दिया कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना है? अर्थात् मनुष्य को सत्य-असत्य का बोध करवा दिया था। अब यह मनुष्य का कर्तव्य है कि वो सत्य मार्ग का वरण करे और असत्य मार्ग का त्याग करे। पर यदि मनुष्य अपनी अज्ञानता से असत्य मार्ग का वरण करता है तो आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक तीनों प्रकार के दुखों का भागी बनता है। अपने सामथ्र्य के अनुसार कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है- यह निश्चित सिद्धांत है मगर उसके कर्मों का यथायोग्य फल मिलना भी उसी प्रकार से निश्चित सिद्धांत है। जिस प्रकार से एक छात्र परीक्षा में अत्यंत परिश्रम करता है उसका फल अच्छे अंकों से पास होना निश्चित है, उसी प्रकार से दूसरा छात्र परिश्रम न करने के कारण फेल होता हैं तो उसका दोष ईश्वर का हुआ अथवा उसका हुआ। ऐसी व्यवस्था संसार के किस कर्म को करने में नहीं हैं? सकल कर्मों में हैं और यही ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था है। फिर किसी भी प्रकार के दु:ख का श्रेय ईश्वर को देना और उसके पीछे ईश्वर की सत्ता को नकारना निश्चित रूप से गलत फैसला है। भगत सिंह की नास्तिकता वह नास्तिकता नहीं है जिसे आज के वामपंथी गाते हैं। यह एक 23 वर्ष के जोशीले, देशभक्त नौजवान युवक की क्षणिक प्रतिक्रिया मात्र है, व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। भगतसिंह की जीवन शैली, उनकी पारिवारिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि और सबसे बढऋकर उनके जीवन-शैली से सिद्ध होता है कि किसी भी आस्तिक से आस्तिकता में कमतर नहीं थे। वे परोपकार रूपी धर्म से कभी अलग नहीं हुए, चाहे उन्हें इसके लिए कितनी भी होनि उठानी पड़ी। महर्षि दयानन्द ने इस परोपकार रूपी ईश्वराज्ञा का पालन करना ही धर्म माना है और साथ ही यह भी कहा है कि इस मनुष्य रूपी धर्म से प्राणों का संकट आ जाने पर भी पृथक न होवे। भगतसिंह का पूरा जीवन इसी धर्म के पालन का ज्वलंत उदाहरण है। इसलि उनकी आस्तिकता का स्तर किसी भी तरह से कम नहीं आंका जा सकता। 
    मेरा इस विषय को यहाँ उठाने का मंतव्य यह स्पष्ट करना है कि भारत माँ के चरणों में आहुति देने वाला हर क्रांतिकारी हमारे लिए महान और आदर्श है। उनकी वीरता और देश सेवा हमारे लिए वरणीय है। भगत सिंह की क्रांतिकारी विचारधारा और देशभक्ति का श्रेय नास्तिकता को नहीं अपितु उनके पूर्वजों द्वारा माँ के दूध में पिलाई गयी देश भक्ति कि लोरियां हैं, जिनका श्रेय स्वामी दयानंद, करतार सिंह साराभा, भाई परमानन्द, लाला लाजपत राय, प्रोफेसर जयदेव विद्यालंकार, भगत सिंह के दादा आर्यसमाजी सरदार अर्जुन सिंह और उनके परिवार के अन्य सदस्य, सिख गुरुओं की बलिदान की गाथाओं को जाता है, जिनसे प्रेरणा की घुट्टी उन्हें बचपन से मिली थी और जो निश्चित रूप से आस्तिक थे। भगत सिंह की महत्ता को नास्तिकता के तराजू में तोलना साम्यवादी लेखकों द्वारा शहीद भगत सिंह के साथ अन्याय के समान है।
डॉ विवेक आर्य 

Saturday, December 22, 2012



स्वामी श्रद्धानंद - २३ दिसंबर-- बलिदान दिवस



1856 में जालंधर में जन्मे स्वामी श्रद्धानंद को बचपन में ईश्वर पर आस्था नहीं थी, लेकिन स्वामी दयानंद का प्रवचन सुनकर उनका जीवन बदल गया।धर्म के सही स्वरूप को महर्षि दयानंद ने जनता में जो स्थापित किया था, स्वामी श्रद्धानंद ने उसे आगे बढ़ाने का निडरता के साथ कदम बढ़ाया..... स्वामी श्रद्धानंद अपना आदर्श  महर्षि दयानंद को मानते थे....... महर्षि दयानंद ने राष्ट्र सेवा का मूलमंत्र लेकर आर्य समाज की स्थापना की थी उन्होंने कहा था कि ' हमें और आपको उचित है कि जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है, आगे होगा, उसकी उन्नति तन मन धन से सब जने मिलकर प्रीति से करें ' । स्वामी श्रद्धानन्द ने इसी को अपने जीवन का मूल आधार बनाया।. स्वामी जी ने हरिद्वार में वैदिक भारतीय संस्कृति पर आधारित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की..... स्वामी श्रद्धानंद जी ने गुरुकुल प्रारंभ करके देश में पुनः वैदिक शिक्षा को प्रारंभ कर महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतो को प्रचार-प्रसार द्वारा कार्यरूप में परिणित किया.....वेद और आर्ष ग्रंथो के आधार पर महर्षि दयानंद जी ने जिन सिद्धांतो का प्रतिपादन किया था उन सिद्धांतो को कार्य रूप में लाने का श्रेय स्वामी श्रद्धानंद जी को जाता है  अछूतोद्धार, शुद्धि, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढने व पढ़ाने की ब्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आदि ऐसे कार्य है जिनके फलस्वरुप स्वामी श्रद्धानंद  अनंत काल के लिए अमर हो गए। 4-अप्रैल , 1919 को मुसलमानों ने स्वामी जी को अपना नेता मानकर भारत की सबसे बड़ी ऐतिहासिक जामा मस्जिद पर आमंत्रित कर के स्वामी जी का सम्मान किया था। दुनिया की यह पहली घटना है जहां मुसलमानों ने किसी गैर मुसलिम को किसी मस्जिद से  उपदेश देने के लिए कहा। स्वामी जी ने वहाँ अपना उपदेश त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शत् क्रतो बभूविथ वेद मंत्र से शुरु किया और शांति पाठ के साथ अपने उपदेश को खत्म किया। उन्होंने जामा मस्जिद से हिंदू और मुसलमानों को सद्भावना का संदेश वेद मंत्रों के साथ दिया था।
उन्होंने पश्चिम उत्तर प्रदेश के ८९ गावो के मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल कर समाज में यह विश्वास जगाया कि जो किसी भी कारण से विधर्मी हो चुके है वो निसंकोच अपने हिन्दू धर्म में वापस आ सकते है किन्तु राजस्थान के मलकाना क्षेत्र के एक लाख मुस्लिम राजपूतों द्वारा अपने मूल हिंदू धर्म में वापसी उन्हें भारी पड़ी जिसके परिणाम स्वरुप एक मदांध युवक अब्दुल रशीद ने 23 दिसंबर 1926 को दिल्ली के चांदनी चौक में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था ' स्वामी श्रद्धानन्द की याद आते ही 1919 का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। सिपाही फ़ायर करने की तैयारी में हैं। स्वामी जी छाती खोल कर आगे आते हैं और कहते हैं- ' लो, चलाओ गोलियां ' । इस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं होगा?
' महात्मा गांधी के अनुसार ' वह वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग शैय्या पर नहीं, परंतु रणांगण में मरना पसंद करते हैं। वह वीर के समान जीये तथा वीर के समान मरे '
आज के समय मे जब बाबा रामदेव जी लुप्त प्राय:योग को जनप्रिय बना सकते है तब आर्य समाज आगे क्यों नही बढ़ सकता?उसका विस्तार क्यो नही किया जा सकता ?समाज मे इतना पाखंड फैला हुआ है उसको आर्य समाज अपना दुश्मन क्यो नही बनाता ?आपस मे ही दुश्मनी क्यो ढ़ूंढी जा रही है ?यह दुश्मनी कब समाप्त होगी ?
यदि स्वामी जी जैसे कुछ लोग भी हमारे पास हों तो इस देश का काया पलट हो सकता है। आज देश में जिस प्रकार आतंकवाद, अलगाव वाद, संस्कारहीनता व सामाजिक कुरीतियों का बोलबाला है उनसे लडने के लिए ऐसे महापुरुषों की नितांत आवश्यकता है। ऐसे महान पुरुष को शत शत नमन .........

Thursday, August 9, 2012

 

आपके पूर्वज जंगलों में बसे अशिक्षित नहीं थे, इस संसार को जागृत करने वाले महापुरुष थे | आपका इतिहास पराजय की गठड़ी नहीं है, वह विश्व-विजेताओं की गौरव-गाथा है | आपकी वैदिक ऋचाएं ग्वालों के गीत नहीं हैं, श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसी महान आत्माओं को साकार करने वाले त्रिकालाबाधित सत्य हैं |"  
महर्षि दयानंद सरस्वती

पुराणों के कृष्ण बनाम महाभारत के कृष्ण



कृष्ण जन्माष्टमी पर सभी हिन्दू धर्म को मानने वाले भगवान श्री कृष्ण जी महाराज को याद करते हैं. कुछ उन्हें गीता का ज्ञान देने के लिए याद करते हैं कुछ उन्हें दुष्ट कौरवों का नाश करने के लिए याद करते हैं.पर कुछ लोग उन्हें अलग तरीके से याद करते हैं.
फिल्म रेडी में सलमान खान पर फिल्माया गया गाना “कुड़ियों का नशा प्यारे,नशा सबसे नशीला है,जिसे देखों यहाँ वो,हुसन की बारिश में गीला है,इश्क के नाम पे करते सभी अब रासलीला है,मैं करूँ तो साला,Character ढीला है,मैं करूँ तो साला,Character ढीला है.”
सन २००५ में उत्तर प्रदेश में पुलिस अफसर डी के पांडा राधा के रूप में सिंगार करके दफ्तर में आने लगे और कहने लगे की मुझे कृष्ण से प्यार हो गया हैं और में अब उनकी राधा हूँ. अमरीका से उनकी एक भगत लड़की आकर साथ रहने लग गयी.उनकी पत्नी वीणा पांडा का कथन था की यह सब ढोंग हैं.
इस्कोन के संस्थापक प्रभुपाद जी एवं अमरीका में धर्म गुरु दीपक चोपरा के अनुसार ” कृष्ण को सही प्रकार से जानने के बाद ही हम वलीनतीन डे (प्रेमिओं का दिन) के सही अर्थ को जान सकते हैं.
इस्लाम को मानने वाले जो बहुपत्नीवाद में विश्वास करते हैं सदा कृष्ण जी महाराज पर १६००० रानी रखने का आरोप लगा कर उनका माखोल करते हैं.
स्वामी दयानंद अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में श्री कृष्ण जी महाराज के बारे में लिखते हैं की पूरे महाभारत में श्री कृष्ण के चरित्र में कोई दोष नहीं मिलता एवं उन्हें आपत पुरुष कहाँ हैं.स्वामी दयानंद श्री कृष्ण जी को महान विद्वान सदाचारी, कुशल राजनीतीज्ञ एवं सर्वथा निष्कलंक मानते हैं फिर श्री कृष्ण जी के विषय में चोर, गोपिओं का जार (रमण करने वाला), कुब्जा से सम्भोग करने वाला, रणछोड़ आदि प्रसिद्द करना उनका अपमान नहीं तो क्या हैं.श्री कृष्ण जी के चरित्र के विषय में ऐसे मिथ्या आरोप का अधर क्या हैं? इन गंदे आरोपों का आधार हैं पुराण. आइये हम सप्रमाण अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं.
पुराण में गोपियों से कृष्ण का रमण करना
विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय १३ श्लोक ५९,६० में लिखा हैं
वे गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी. कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे.
कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं. भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ शलोक १७ में लिखा हैं -
कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे.जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीरा ‘विषय भोग’ किया.
भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ शलोक ४५,४६ में लिखा हैं -
कृष्णा ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपिओं के साथ प्रवेश किया. वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था. वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना , उनकी छोटी पकरना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन (पकरना) मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपिओं को खूब जागृत करके उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय भोग) किया.
ऐसे अभद्र विचार कृष्णा जी महाराज को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द १० के अध्याय २९,३३ में वर्णित किये हैं जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए मैं वर्णन नहीं कर रहा हूँ.
राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन
राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता हैं. महाभारत में राधा का वर्णन तक नहीं मिलता. राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यंत अशोभनिय वृतांत का वर्णन करते हुए मिलता हैं.
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ३ शलोक ५९,६०,६१,६२ में लिखा हैं की गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकर लिया तो शाप देकर कहाँ – हे कृष्ण ब्रज के प्यारे , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता हैं – हे चंचल , हे अति लम्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया हैं. तू मेरे घर से चला जा. तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट हैं, तुझे मनुष्यों की योनी मिले, तू गौलोक से भारत में चला जा. हे सुशीले, हे शाशिकले, हे पद्मावती, हे माधवों! यह कृष्ण धूर्त हैं इसे निकल कर बहार करो, इसका यहाँ कोई काम नहीं.
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय १५ में राधा का कृष्ण से रमण का अत्यंत अश्लील वर्णन लिखा हैं जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए में यहाँ विस्तार से वर्णन नहीं कर रहा हूँ.
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ७२ में कुब्जा का कृष्ण के साथ सम्भोग भी अत्यंत अश्लील रूप में वर्णित हैं .
राधा का कृष्ण के साथ सम्बन्ध भी भ्रामक हैं. राधा कृष्ण के बामांग से पैदा होने के कारण कृष्ण की पुत्री थी अथवा रायण से विवाह होने से कृष्ण की पुत्रवधु थी चूँकि गोलोक में रायण कृष्ण के अंश से पैदा हुआ था इसलिए कृष्ण का पुत्र हुआ जबकि पृथ्वी पर रायण कृष्ण की माता यसोधा का भाई था इसलिए कृष्ण का मामा हुआ जिससे राधा कृष्ण की मामी हुई.
कृष्ण की गोपिओं कौन थी?
पदम् पुराण उत्तर खंड अध्याय २४५ कलकत्ता से प्रकाशित में लिखा हैं की रामचंद्र जी दंडक -अरण्य वन में जब पहुचें तो उनके सुंदर स्वरुप को देखकर वहां के निवासी सारे ऋषि मुनि उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे. उन सारे ऋषिओं ने द्वापर के अंत में गोपियों के रूप में जन्म लिया और रामचंद्र जी कृष्ण बने तब उन गोपियों के साथ कृष्ण ने भोग किया. इससे उन गोपियों की मोक्ष हो गई. वर्ना अन्य प्रकार से उनकी संसार
रुपी भवसागर से मुक्ति कभी न होती.
क्या गोपियों की उत्पत्ति का दृष्टान्त बुद्धि से स्वीकार किया जा सकता हैं?
श्री कृष्ण जी महाराज का वास्तविक रूप
अभी तक हम पुराणों में वर्णित गोपियों के दुलारे, राधा के पति, रासलीला रचाने वाले कृष्ण के विषय में पढ़ रहे थे जो निश्चित रूप से असत्य हैं.
अब हम योगिराज, निति निपुण , महान कूटनीतिज्ञ श्री कृष्ण जी महाराज के विषय में उनके सत्य रूप को जानेगे.
आनंदमठ एवं वन्दे मातरम के रचियता बंकिम चन्द्र चटर्जी जिन्होंने ३६ वर्ष तक महाभारत पर अनुसन्धान कर श्री कृष्ण जी महाराज पर उत्तम ग्रन्थ लिखा ने कहाँ हैं की महाभारत के अनुसार श्री कृष्ण जी की केवल एक ही पत्नी थी जो की रुक्मणी थी, उनकी २ या ३ या १६००० पत्नियाँ होने का सवाल ही पैदा नहीं होता. रुक्मणी से विवाह के पश्चात श्री कृष्ण रुक्मणी के साथ बदरिक आश्रम चले गए और १२ वर्ष तक तप एवं ब्रहमचर्य का पालन करने के पश्चात उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम प्रदुमन था. यह श्री कृष्ण के चरित्र के साथ अन्याय हैं की उनका नाम १६००० गोपियों के साथ जोड़ा जाता हैं. महाभारत के श्री कृष्ण जैसा अलोकिक पुरुष , जिसे कोई पाप नहीं किया और जिस जैसा इस पूरी पृथ्वी पर कभी-कभी जन्म लेता हैं. स्वामी दयानद जी सत्यार्थ प्रकाश में वहीँ कथन लिखते हैं जैसा बंकिम चन्द्र चटर्जी ने कहाँ हैं. पांड्वो द्वारा जब राजसूय यज्ञ किया गया तो श्री कृष्ण जी महाराज को यज्ञ का सर्वप्रथम अर्घ प्रदान करने के लिए सबसे ज्यादा उपर्युक्त समझा गया जबकि वहां पर अनेक ऋषि मुनि , साधू महात्मा आदि उपस्थित थे.वहीँ श्री कृष्ण जी महाराज की श्रेष्ठता समझे की उन्होंने सभी आगंतुक अतिथियो के धुल भरे पैर धोने का कार्य भार लिया. श्री कृष्ण जी महाराज को सबसे बड़ा कूटनितिज्ञ भी इसीलिए कहा जाता हैं क्यूंकि उन्होंने बिना हथियार उठाये न केवल दुष्ट कौरव सेना का नाश कर दिया बल्कि धर्म की राह पर चल रहे पांडवो को विजय भी दिलवाई.
ऐसे महान व्यक्तित्व पर चोर, लम्पट, रणछोर, व्यभिचारी, चरित्रहीन , कुब्जा से समागम करने वाला आदि कहना अन्याय नहीं तो और क्या हैं और इस सभी मिथ्या बातों का श्रेय पुराणों को जाता हैं.
इसलिए महान कृष्ण जी महाराज पर कोई व्यर्थ का आक्षेप न लगाये एवं साधारण जनों को श्री कृष्ण जी महाराज के असली व्यक्तित्व को प्रस्तुत करने के लिए पुराणों का बहिष्कार आवश्यक हैं और वेदों का प्रचार आती आवश्यक हैं.
और फिर भी अगर कोई न माने तो उन पर यह लोकोक्ति लागु होती हैं-
जब उल्लू को दिन में न दिखे तो उसमें सूर्य का क्या दोष हैं?
प्रोफैसर उत्तम चन्द शरर जन्माष्टमि पर सुनाया करते थे
: तुम और हम हम कहते हैं आदर्श था इन्सान था मोहन |
…तुम कहते हो अवतार था, भगवान था मोहन ||
हम कहते हैं कि कृष्ण था पैगम्बरो हादी |
तुम कहते हो कपड़ों के चुराने का था आदि ||
हम कहते हैं जां योग पे शैदाई थी उसकी |
तुम कहते हो कुब्जा से शनासाई थी उसकी ||
हम कहते है सत्यधर्मी था गीता का रचैया |
तुम साफ सुनाते हो कि चोर था कन्हैया ||
हम रास रचाने में खुदायी ही न समझे |
तुम रास रचाने में बुराई ही न समझे ||
इन्साफ से कहना कि वह इन्सान है अच्छा |
या पाप में डूबा हुआ भगवान है अच्छा ||

साभार  विवेक आर्य

Sunday, April 22, 2012

सभी मनुष्य एक ही जाति हैं |


जब उत्तम-उत्तम उपदेशक होते हैं तब अच्छे प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिध्द होते हैं  और जब उत्तम उपदेशक और श्रोता नहीं रहते तब अंध परम्परा चलती है फिर भी जब सत्पुरुष होकर सत्योपदेश होता है तभी अंध परम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है
महर्षि दयानंद सरस्वती



सभी मनुष्य एक ही जाति हैं |
जिस तरह आज देश राजनितिक रूप से सामाजिक रूप से विभिन्न जाति एवं पंथों में बंटा हुवा है उसका दुष्परिणाम हमें स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है | जिस तरह हमारे मर्यादा पुरुषोत्तम राम एवं रामसेतु को काल्पनिक बताया जा रहा है तथा हमारी तथाकथित सेकुलर जमात ऐसे लोगों के हाँ में हाँ मिला रहा है बहुत ही क्षोभनीय स्थिति है ये | जिस ब्राह्मण समाज की जिम्मेद्वारी थी देश को सही दिशा देने की आज वही ब्राह्मण समाज इतिहास की भूलों से सबक नहीं लेते हुवे अपने स्वार्थ के लिए अंधविश्वास के पोषण में लगा हुवा है |
हिंदुओं में सामाजिक निर्बलता का मूल कारण उनमें प्रेम का अभाव हैं जो की जातिवाद की देन है | हम अच्छी तरह जानते हैं की किसी भी समाज में सामाजिक गठन तभी स्थापित हो सकता हैं जब उस समाज के सदस्यों में आपस में न्याय और प्रेम का व्यवहार हो | जातिवाद के कारण अपने आप को उच्च कहने वाली जातियां  अपने ही समाज के दुसरे सदस्यों को नीचा मानती हैं जिसके कारण आपस में प्रेम रहना असंभव हैं  |. जिस सामाजिक व्यवस्था में बुद्धिमत्ता, सज्जनता तथा गुण सम्पन्त्ता का कोई स्थान न हो, जिस सामाजिक व्यवस्था में एक नीच जाति के मनुष्य को अपने गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर उच्च पद पाने की कोई सम्भावना न हो, जो सामाजिक व्यवस्था प्रकृति के नियमों के विरुद्ध एवं अस्वाभाविक हो, जो सामाजिक व्यवस्था अन्याय पर आधारित हों और सामाजिक उन्नति की जड़ों को काटने वाली हों  ऐसी व्यवस्था में प्रेम का ह्रास और एकता का न होना निश्चित हैं और यही कारण हैं की हिन्दू जाति पिछले २०००  साल से संख्या में अधिक होते हुए भी विधर्मियों से पिटती आ रही हैं और आगे भी इसी प्रकार पिटती रहेगी |
इसी आपसी फूट तथा स्वार्थ वश धर्मग्रंथों में मिलावट ने हिंदुओं को इतना निर्बल बना दिया हैं की कोई भी बाहर से आता है अवैज्ञानिक बातों के आधार पर इनके धर्म ग्रंथों का अपमान करता है और ये कुछ भी नहीं कर पाते हैं | इसी भेद भाव के कारण करोडों हिंदुओं ने धर्म परिवर्तन कर के अन्य धर्म अपना लिया है | किन्तु हमारे धर्माधिकारियों के कानों पर जूं तक रेंगता नजर नहीं आता | कभी सारे विश्व में वैदिक धर्म का साम्राज्य था आज वह भारत में भी हिंदू धर्म के रूप में सिमटता जा रहा है किन्तु फिर भी हम आज खुशफहमी में जी रहे हैं |
प्राचीन भारत में वर्णाश्रम व्यवस्था थी जिसके अनुसार एक ब्राह्मण का पुत्र अगर अनपढ़, शराबी, मांसाहारी, चरित्रहीन होता था तो वह ब्राह्मण नहीं अपितु शुद्र कहलाया जाता था | जबकि अगर एक शुद्र का पुत्र विद्वान, ब्रहमचारी, वेदों का ज्ञाता और चरित्रवान होता था तो वह ब्राह्मण कहलाता था | यही संसार की सबसे बेहतरीन वर्ण व्यवस्था थी जो गुण, कर्म और स्वभाव पर आधारित थी |
उदाहरण के रूप में----- सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए  | राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४..१३) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |
विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
किन्तु बाद में कुछ स्वार्थी समर्थ लोगों ने इस व्यवस्था में घालमेल कर के इसे जन्म आधारित कर दिया |
आइये अब जाने जाति है क्या ....जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण |
 न्याय सूत्र यही कहता हैसमानप्रसवात्मिका जाति:” अथवा जिनके जन्म का मूल स्त्रोत सामान हो वह एक जाति बनाते हैं |
ऋषियों द्वारा प्राथमिक तौर पर जन्म-जातियों को चार स्थूल विभागों में बांटा गया है
१.. उद्भिज--धरती में से उगने वाले जैसे पेड़, पौधे,लता आदि
२.. अंडज --अंडे से निकलने वाले जैसे पक्षी, सरीसृप आदि
३.. पिंडज --स्तनधारी- मनुष्य और पशु आदि
४ .. उष्मज --तापमान तथा परिवेशीय स्थितियों की अनुकूलता के योग से उत्त्पन्न होने वालेजैसे सूक्ष्म जिवाणू वायरस, बैक्टेरिया आदि
हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है | एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियां आपस में संतान उत्त्पन्न कर सकती हैं | अतः जाति ईश्वर निर्मित है |
जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियां हैं |इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है | ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट में कोई अंतर है  और न ही उनके जन्म स्त्रोत  में भिन्नता पाई जाती है |
बहुत समय बाद जाति शब्द का प्रयोग किसी भी प्रकार के वर्गीकरण के लिए प्रयुक्त होने लगा | और इसीलिए हम सामान्यतया विभिन्न समुदायों को ही अलग जाति कहने लगे | जबकि यह मात्र व्यवहार में सहूलियत के लिए हो सकता है | सनातन सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं |