Friday, May 8, 2020

भारतीय मनीषियों ने बार-बार कहा है कि

एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति

---ऋग्वेद-1/164/46

एक ही ईश्वर को विद्वान लोग उसके गुण के अनुसार अनेक नामों से पुकारते हैं। 


ऋग्वेद के अगर इस श्लोक से उपजे मंत्र को यदि विश्व अपना ले, तो विश्व शांति एक कल्पनातीत विषय नहीं है।
वेद तो - सर्वे भवन्तु सुखिनः और वसुधैव कुटुंबकम् को स्वीकारता है। सभी धर्मों को सच्चा धर्म मानता है, लेकिन क्या बाकी के धर्म भी दूसरों को उनका स्थान और सम्मान देने को तैयार हैं ?
सनातन परंपरा में जब शिष्य अपने गुरु से पूछता है "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा "अर्थात गुरुवर मुझे ब्रह्म को जानने के बारे मे जिज्ञासा है तो गुरु उसको विद्या अध्ययन तप शील ज्ञान गुण और धर्म की शिक्षा देने के बाद कहते हैं - "तद् त्वं असि" जिसकी खोज मे तुम जिज्ञासु और आतुर हो वो तुम्हारे भीतर ही है, और फिर उसको ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताते है।

लेकिन अन्य मजहबों में ऐसी बात नहीं।
उसमे अल्लाह या God के द्वारा चुने हुये व्यक्ति पैगंबर के माध्यम से ही वो सब को एक आसमानी किताब देता है। जिसके हर एक शब्द को मानना अनिवार्य होता है। अल्लाह के साथ साथ उस पैगम्बर पर भी ईमान लाना उसकी श्रेष्ठ होने का प्रमाण है। ईमान न लाने वाला काफ़िर है, वाजिबुल कत्ल है।

जब कि वास्तव में सनातन दृष्टिकोण से देखा जाय तो मानव निरंतर चलता रहे गतिशील रहे बेहतर के लिए प्रयत्न करता रहेगा यही उसके श्रेष्ठ होने का प्रमाण है।
मानव में निहित शक्तियों के रूप में कृष्ण बोलते हैं कि जब जब धर्म की हानि होती है तब तब मेरे जैसे लोग अवतरित होते हैं।
अवतार मनुष्य की निरंतर जीने की इच्छा ही है जो हर हार के बाद फिर से उठ खड़ी होती है। और यह निरंतर जीने की कामना कभी महावीर, कभी बुद्ध, कभी जीजस, कभी मोहम्मद,कभी कबीर, कभी नानक, तो कभी गांधी के रूप में प्रकट होती है। जो समस्त सृष्टि में छुपी एकात्मकता से परिचित कराती है। किंतु कुछ काल में मनुष्य की स्वार्थी प्रवृत्ति चतुराई के साथ ऐसा अंधेरा बुनती है कि यह सारा तत्वज्ञान ओझल होने लगता है। उनके अनुयाई अपने स्वार्थ में तत्वज्ञान के नाम पर एक नया रास्ता ही निकाल देते हैं। इसी तरह ज्ञान के मुख्य पथ से खुद को भगवान घोषित करती हुई ना जाने कितने मजहब मत पंथ एवं संप्रदाय निकल आये। और सत्य मार्ग आंखों से ओझल हो गया।
धर्म और प्रभु तत्व के लालच में संगठित ऐसे धार्मिक लुटेरों ने अपने कृत्यों से धर्म को और बदनाम किया है।
इसी स्वार्थी सोच के तहत मनुष्य अपने इलाके की बोली भाषा और धर्म के तहत एक दूसरे को जानता,पहचानता है और विश्वास करता है। इसी का लाभ मनुष्य को बांटते वाली ताकतें उठाती है और अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करती है।
भारत में भले ही अधिकतर मुस्लिम की आस्था का केंद्र अरब देश हो, उनके धर्म के मुख्य केंद्र मक्का मदीना हों। लेकिन उन सभी के पूर्वज यहीं के हैं। उनका डीएनए उनको यही का सिद्ध करता है। उन्हें बाहर का कोई भी इस्लामी देश स्वीकार नहीं करता और ना ही वह वहां पर जाकर खुश ही होंगे। लेकिन आज उन्हीं के द्वारा गंगा जमुनी तहजीब पर शंका उठाने की प्रवृत्ति सक्रिय नजर आने लगी है। जबकि समाजवादी विचारधारा के बावजूद चीन में मुसलमानों से उसके नमाज करने की चटाईयां एवं कुरान की प्रतियां जप्त की जा रही है। अमेरिका में सरदारों को महज दाढ़ी होने के कारण मुसलमान समझ कर पीटा जा रहा है, हमले किए जा रहे हैं। विभिन्न इस्लामी देशों में उसी धर्म के मानने वाले अनुयायियों के द्वारा कत्लेआम एवं नृशंश गोलाबारी किस मानवतावादी धर्म का संकेत है?
विज्ञान की शिक्षा समस्त विश्व में एक ही है और जब भी कोई संशोधन होता है तो यह समस्त विश्व में एक समान लागू होता है जबकि धार्मिक शिक्षा के साथ ऐसी बात नहीं है। समस्त तथाकथित धार्मिक शिक्षायें आज अलगाववाद का सृजन ही करती नजर आती हैं।
 सरकारों द्वारा धार्मिक शिक्षाओं के नाम पर समाज में फूट डालने वाली शिक्षाओं को कोई छूट देने की अनुमति नहीं होनी चाहिए।
सभी स्कूलों का पाठ्यक्रम एक सा होना चाहिए। क्योंकि बिना ऐसी शिक्षा के दुनिया में घृणा और कुटिलता का अंधेरा आस्था और धर्म का रूप धर कर बार बार आता ही रहेगा।

--मदन शर्मा / आर्य समाज चौक प्रयाग

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