जब उत्तम-उत्तम उपदेशक होते हैं तब अच्छे प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिध्द
होते हैं और जब उत्तम उपदेशक और श्रोता
नहीं रहते तब अंध परम्परा चलती है फिर भी जब सत्पुरुष होकर सत्योपदेश होता है तभी अंध परम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है
महर्षि दयानंद सरस्वती
सभी मनुष्य एक ही जाति हैं |
जिस तरह आज देश राजनितिक रूप से सामाजिक रूप से विभिन्न जाति एवं
पंथों में बंटा हुवा है उसका दुष्परिणाम हमें स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है | जिस
तरह हमारे मर्यादा पुरुषोत्तम राम एवं रामसेतु को काल्पनिक बताया जा रहा है तथा
हमारी तथाकथित सेकुलर जमात ऐसे लोगों के हाँ में हाँ मिला रहा है बहुत ही क्षोभनीय
स्थिति है ये | जिस ब्राह्मण समाज की जिम्मेद्वारी थी देश को
सही दिशा देने की आज वही ब्राह्मण समाज इतिहास की भूलों से सबक नहीं लेते हुवे
अपने स्वार्थ के लिए अंधविश्वास के पोषण में लगा हुवा है |
हिंदुओं में सामाजिक निर्बलता का मूल कारण उनमें प्रेम का
अभाव हैं जो की जातिवाद की देन है | हम अच्छी तरह जानते हैं की किसी भी समाज में
सामाजिक गठन तभी स्थापित हो सकता हैं जब उस समाज के सदस्यों में आपस में न्याय और
प्रेम का व्यवहार हो | जातिवाद के कारण अपने आप को उच्च कहने वाली जातियां अपने ही समाज के दुसरे सदस्यों को नीचा मानती
हैं जिसके कारण आपस में प्रेम रहना असंभव हैं |. जिस सामाजिक व्यवस्था में बुद्धिमत्ता, सज्जनता
तथा गुण सम्पन्त्ता का कोई स्थान न हो, जिस सामाजिक व्यवस्था में एक नीच जाति के
मनुष्य को अपने गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर उच्च पद पाने की
कोई सम्भावना न हो, जो सामाजिक व्यवस्था प्रकृति के नियमों के
विरुद्ध एवं अस्वाभाविक हो, जो सामाजिक व्यवस्था अन्याय पर आधारित हों और सामाजिक
उन्नति की जड़ों को काटने वाली हों ऐसी
व्यवस्था में प्रेम का ह्रास और एकता का न होना निश्चित हैं और यही कारण हैं की
हिन्दू जाति पिछले २००० साल से संख्या में
अधिक होते हुए भी विधर्मियों से पिटती आ रही हैं और आगे भी इसी प्रकार पिटती रहेगी
|
इसी आपसी फूट तथा स्वार्थ वश धर्मग्रंथों में मिलावट ने हिंदुओं
को इतना निर्बल बना दिया हैं की कोई भी बाहर से आता है अवैज्ञानिक बातों के आधार
पर इनके धर्म ग्रंथों का अपमान करता है और ये कुछ भी नहीं कर पाते हैं | इसी भेद
भाव के कारण करोडों हिंदुओं ने धर्म परिवर्तन कर के अन्य धर्म अपना लिया है | किन्तु
हमारे धर्माधिकारियों के कानों पर जूं तक रेंगता नजर नहीं आता | कभी सारे विश्व
में वैदिक धर्म का साम्राज्य था आज वह भारत में भी हिंदू धर्म के रूप में सिमटता
जा रहा है किन्तु फिर भी हम आज खुशफहमी में जी रहे हैं |
प्राचीन भारत में वर्णाश्रम
व्यवस्था थी जिसके अनुसार एक ब्राह्मण का पुत्र अगर अनपढ़, शराबी, मांसाहारी, चरित्रहीन होता था तो वह ब्राह्मण नहीं अपितु शुद्र कहलाया जाता था | जबकि
अगर एक शुद्र का पुत्र विद्वान, ब्रहमचारी, वेदों का ज्ञाता और चरित्रवान होता था तो वह ब्राह्मण कहलाता था | यही
संसार की सबसे बेहतरीन वर्ण व्यवस्था थी जो गुण, कर्म और स्वभाव
पर आधारित थी |
उदाहरण के रूप में----- सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या)
के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए | राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके
कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |
विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र
स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
किन्तु बाद में कुछ स्वार्थी समर्थ लोगों ने इस व्यवस्था में
घालमेल कर के इसे जन्म आधारित कर दिया |
आइये अब जाने जाति है क्या .... – जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण |
न्याय सूत्र यही कहता है “समानप्रसवात्मिका जाति:” अथवा जिनके जन्म का मूल स्त्रोत
सामान हो वह एक जाति बनाते हैं |
ऋषियों द्वारा प्राथमिक तौर पर जन्म-जातियों
को चार स्थूल विभागों में बांटा गया है –
१.. उद्भिज--धरती में से उगने वाले जैसे पेड़, पौधे,लता आदि
२.. अंडज --अंडे से निकलने वाले जैसे पक्षी, सरीसृप
आदि
३.. पिंडज --स्तनधारी- मनुष्य और पशु आदि
४ .. उष्मज --तापमान तथा परिवेशीय स्थितियों की अनुकूलता के योग से
उत्त्पन्न होने वाले – जैसे सूक्ष्म जिवाणू वायरस, बैक्टेरिया आदि
हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है | एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियां
आपस में संतान उत्त्पन्न कर सकती हैं | अतः जाति ईश्वर निर्मित
है |
जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियां हैं |इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक
जाति है | ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें
परस्पर शारीरिक बनावट में कोई अंतर है और न
ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है
|
बहुत समय बाद जाति शब्द का प्रयोग किसी भी प्रकार के वर्गीकरण के लिए
प्रयुक्त होने लगा | और इसीलिए हम सामान्यतया विभिन्न समुदायों को ही अलग
जाति कहने लगे | जबकि यह मात्र व्यवहार में सहूलियत के लिए हो
सकता है | सनातन सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं
|
sansar me isi char ki utpati maloom hoti hai ,ye char hath pair wale devi devi ishver ki rachna me nhi aate ...
ReplyDelete@ सनातन सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं ।
ReplyDeleteबिल्कुल सही विचार।
सनातन सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं |
ReplyDeleteSunder...Vaicharik Post
सनातन सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं |...आपके विचारो से सहमत हूँ मदन जी
ReplyDeleteआखिर असली जरुरतमंद कौन है
ReplyDeleteभगवन जो खा नही सकते या वो जिनके पास खाने को नही है
एक नज़र हमारे ब्लॉग पर भी
http://blondmedia.blogspot.in/2012/05/blog-post_16.html
सुन्दर विचार.
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित आलेख..
ReplyDeleteप्राचीन भारत में वर्णाश्रम व्यवस्था थी जिसके अनुसार एक ब्राह्मण का पुत्र अगर अनपढ़, शराबी, मांसाहारी, चरित्रहीन होता था तो वह ब्राह्मण नहीं अपितु शुद्र कहलाया जाता था | जबकि अगर एक शुद्र का पुत्र विद्वान, ब्रहमचारी, वेदों का ज्ञाता और चरित्रवान होता था तो वह ब्राह्मण कहलाता था | यही संसार की सबसे बेहतरीन वर्ण व्यवस्था थी जो गुण, कर्म और स्वभाव पर आधारित थी |
ReplyDeleteआप बहुत सही कह रहे हैं,मदन जी.श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार भी
जाति का वर्गीकरण गुण,कर्म और स्वभाव के अनुसार ही किया गया है
न कि जन्म के आधार पर.एक शुद्र अपने गुण कर्म स्वभाव में परिवर्तन लाकर ब्राह्मण हो सकता है,और ब्राह्मण शुद्र.
सारगर्भित लेखन के लिए हार्दिक आभार.
लगता है आप भी बहुत व्यस्त रहते हैं आजकल.