Friday, May 8, 2020

जब तक वाद न छूटेगा तब तक आनंद नहीं



जब तक वाद न छूटेगा तब तक आनंद नहीं

यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेद मत से भिन्न दूसरा कोई भी मत नहीं था, क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने के कारण महाभारत युद्ध हुआ। इनकी अप्रवृत्ति से अविद्या अंधकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिसके मन में जैसा आया, वैसा मत चलाया। मेरा तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं, किंतु सत्यासत्य का निर्णय करने-कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्याय दृष्टि से बरतना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्यासत्य का निर्णय करने- कराने के लिए है, न कि वाद-विवाद करने- कराने के लिए। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मत-मतांतर का विरुद्ध वाद न छूटेगा, तब तक अन्यो अन्य को आनंद न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वत जन ईर्ष्या- द्वेष छोड़ सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना- कराना चाहें, तो हमारे लिए यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सबको विरोध-जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें, तो अभी एकमत हो जाएं। सर्वशक्तिमान परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों की आत्माओं में प्रकाशित करे। यह आर्यावर्त देश ऐसा देश है, जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिए इस देश का नाम सुवर्णभूमि है, क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है। इसीलिए सृष्टि की आदि में आर्य लोग इसी देश में आकर बसे। इसीलिए हम सृष्टि विषय में कह आए हैं कि आर्य नाम उत्तम पुरुषों का है और आर्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु है। जितने भूगोल में देश हैं, वे सब इसी देश की प्रशंसा करते हैं।सृष्टि से लेकर पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यंत आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में मांडलिक अर्थात छोटे-छोटे राजा रहते थे। जो संस्कृत विद्या को नहीं पढ़े, वे भ्रम में पड़कर कुछ का कुछ लिखते और कुछ का कुछ बकते हैं। उसका बुद्धिमान लोग प्रमाण नहीं कर सकते। और जितनी विद्या भूगोल में फैली है, वह सब आर्यावर्त देश से मिश्र वालों, उनसे यूनानी, उनसे रोम और उनसे यूरोप, उनसे अमेरिका आदि में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या का आर्यावर्त में है, उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि जर्मनी देश में संस्कृत का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मैक्समूलर साहब पढ़े हैं, उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहने मात्र को है। जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता, वहां एरंड को ही बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप में संस्कृत का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मैक्समूलर साहब ने थोड़ा-सा पढ़ा, वही उस देश के लिए अधिक है। परंतु आर्यावर्त देश की ओर देखें, तो उनकी बहुत न्यून गणना है। यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्यावर्त देश से ही प्रचारित हुए हैं। एक गोल्डस्टकर साहब पेरिस अर्थात फ्रांस देश निवासी अपनी बाइबिल इन इंडिया में लिखते हैं कि सब विद्या और भलाइयों का देश आर्यावर्त है और परमात्मा की प्रार्थना करते हैं कि हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्यावर्त देश की पूर्वकाल में थी, वैसी ही हमारी देश की कीजिए।
--महर्षि दयानन्द सरस्वती

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